Lok Sabha elections are underway, Muslim voters can change the situation on 92 seats

लोकसभा चुनाव का बजा डंका, 92 सीटों पर मुस्लिम मतदाता बदल सकते हैं बाजी

Lok Sabha elections are underway, Muslim voters can change the situation on 92 seats

Lok Sabha elections are underway, Muslim voters can change the situation on 92 seats

Lok Sabha elections are underway, Muslim voters can change the situation on 92 seats- नई दिल्ली। लोक सभा 2024 की चुनाव तिथि की घोषणा के साथ ही राजनीति पार्टियां अपनी रणनीति बनाने में जुट गई है। प्रदेश में ९२ लोकसभा संसदीय सीटें ऐसी हैं जहां पर मुस्लिम वोटों का सीधा प्रभाव पड़ता है। कहने को देश के बड़े राज्य उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, कर्नाटक व असम ऐसे मुस्लिम प्रदेश है, जहां पर वर्ष २०११ की जनगणना को आधार माना जाए तो 14 प्रतिशत मुस्लमानों की भागीदारी रही है। अब देखना है कि इस बार के लोकसभा चुनाव में मुस्लिम वोटर्स का कितना प्रभाव रहता है। ताजा मिले आंकड़ों के अनुसार, 92 सीटों पर 20 प्रतिशत से ज्यादा मुस्लिम मतदाता हैं। इनमें 41 सीटों पर 21-30 प्रतिशत, 11 सीटों पर 41-50 प्रतिशत, 24 सीटों पर 31-40 प्रतिशत और 16 सीटों पर 50 प्रतिशत से ज्यादा मुस्लिम मतदाता हैं। 

क्षेत्रीय दलों को मिली ताकत

वर्ष 1980 तक कांग्रेस के साथ मजबूती से खड़ा रहा यह वोटबैंक छिटका तो इसने राज्य स्तर पर क्षेत्रीय दलों का दामन थाम लिया। मसलन, मंडल-कमंडल की राजनीति के बाद उत्तर प्रदेश में उभरी समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को मुस्लिमों ने ‘वोटबैंक’ के रूप में ताकत दी। बिहार में राष्ट्रीय जनता दल (राजद), बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, कर्नाटक में कभी कांग्रेस तो कभी जनता दल (सेकुलर) को मजबूत किया।

वामपंथी दलों को तो इनका सहारा शुरू से रहा है। इस बड़े वोटबैंक में राजनीतिक सेंध ही अहम कारण है कि यह वर्ग भाजपा के विरोध में मजबूत प्रतिद्वंद्वी की तलाश में भटकते हुए अलग-अलग दलों संग बिखरता रहा और अपना महत्व घटाया। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण भी है। करीब 14 प्रतिशत कुल आबादी और अहम राज्यों पर राजनीतिक प्रभाव की क्षमता के बाद भी इसे लोकसभा में समुचित प्रतिनिधत्व कभी नहीं मिला।

विपक्ष की नीयत भी अच्छी नहीं

भाजपा पर मुस्लिम विरोधी होने का आरोप लगाकर उसके द्वारा मुस्लिम नेताओं को लोकसभा का टिकट न दिए जाने का मुद्दा विपक्षी दल बेशक उठाते रहें, पर आंकड़े उनकी खुद की नीयत की चुगली करते हैं। यह सही है कि 2014 में भाजपा बहुमत के साथ जीतने वाली पहली ऐसी पार्टी बनी, जिसके पास एक भी निर्वाचित मुस्लिम सांसद नहीं था।

विपक्षी दलों ने मुस्लिम प्रत्याशी उतारे और वह जीते भी। 2019 में 17वीं लोस में 27 मुस्लिम सांसद चुने गए, जो 16वीं लोस के 23 सांसदों से थोड़ा अधिक हैं। वैसे आबादी के अनुपात के हिसाब से संसद में कम से कम 76 मुस्लिम सांसद होने चाहिए थे। सबसे अधिक मुस्लिम सांसद वर्ष 1980 में संसद पहुंचे थे, जिनकी संख्या 49 थी। उसके बाद से अब तक यह आंकड़ा गिरता ही रहा है।

मिथक तोड़ती भाजपा

मुस्लिम राजनीति को लेकर देश में जो भी मिथक थे, उन्हें भाजपा तोडऩे का प्रयास करती दिख रही है। सच तो यह है कि कभी पूरी तरह कांग्रेस की मुठ्ठी में रहा यह वोटबैंक जब फिसला तो यूं बिखरा कि कांग्रेस फिर लगातार कमजोर होती गई। इस वोट की ताकत ने अलग-अलग राज्यों में क्षेत्रीय दलों को चुनावी जीत का नया समीकरण दे दिया। अब जब 2024 के महासमर के लिए सभी दलों की रणनीति बन रही है तो मुस्लिम मतदाता सबके मन में हैं।

मुस्लिम वोटों के विभाजन को रोकने का प्रयास

विपक्षी गठबंधन आइएनडीआइए के गठन के पीछे सोच मुस्लिम मतों का विभाजन रोकना है जिससे भाजपा भी सतर्क है। ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास और सबका प्रयास’ के मंत्र और भेदभावरहित कल्याणकारी योजनाओं से अल्पसंख्यकों का विश्वास जीतने के जतन के साथ ही भाजपा मुस्लिमों में पिछड़े वर्ग पसमांदा की पीड़ा का मामला उठाकर इस वर्ग की एकजुटता पर असर डालने के प्रयास में दिखती है। 

मुस्लिम महिलाओं को पीढिय़ों पुराने दंश से दिलाई मुक्ति

मुस्लिम महिलाओं को पीढिय़ों पुराने दंश से मुक्ति दिलाने के लिए तीन तलाक के विरुद्ध कानून बनाया। फिर मुस्लिम आबादी में सर्वाधिक हिस्सेदारी वाले पिछड़े मुसलमान यानी पसमांदा मुस्लिमों के हक की आवाज उठाई। बूथ स्तर पर मोदी मित्र बनाए गए हैं। यह प्रयास परिणाम में बदल रहा। चार से सात प्रतिशत तक मुस्लिम भाजपा को वोट देते रहे हैं। सेंटर फार द स्टडी आफ डेवलपिंग सोसायटी के मुताबिक 2014 के चुनाव में राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिम वोटों का करीब 8.5 प्रतिशत भाजपा के पक्ष में गया था। भाजपा को इससे पहले इनका इतना समर्थन कभी नहीं मिला।